एडवर्ड लुटियन और वायसराय हाउस

Edward Lutyens and Viceroy House of Delhi-एडवर्ड लुटियन और वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन)

जिस दिन एडवर्ड लुटियन आखिरी बार वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन) से बाहर निकले उन्होंने इसके बाहर लगे पत्थर को रुमाल से पोंछा और वैसे चूमा, जैसे कोई पिता अपनी बेटी को विदा करते हुए उसके माथे को चूमता है।

1857 की क्रांति के दौरान दिल्ली में खूब खून-खराबा हुआ। दिल्ली उजड़ सी गई. ऐसा दिल्ली के साथ सातवीं बार हुआ था।अंग्रेजों की राजधानी कोलकाता थी और दिल्ली में कोई किसी तरह का पैसा लगाने को तैयार नहीं था। तब मेरठ में 2161 विदेशी थे और दिल्ली में 922। लेकिन देश के बीच में होने के कारण बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता पर तरजीह दी गई।

1911 में हुए दिल्ली दरबार में दिल्ली को भारत की राजधानी बनाया गय मगर अंग्रेजों को लगा कि दिल्ली ‘राजधानी लायक’ नहीं है। ऐसे में एडविन लुटियन को दिल्ली की नई शक्ल बनाने का जिम्मा मिला। लुटियन अपनी सोच में भारतीयों के प्रति काफी नकारात्मक थे। उन्हें भारत में कुछ भी अच्छा नहीं दिखता था। यहां तक कि ताजमहल के आर्किटेक्चर में भी लुटियन ने कई कमियां बता दीं।

लेकिन लुटियन इस नई दिल्ली को पूरे मन से बनाया। रायसीना की पहाड़ियों पर बसा, वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन), हैदराबाद हाउस, बीकानेर हाउस, पटियाला हाउस जैसी तमाम इमारतें इसी दौर में बनीं। खंभों पर छतरी जैसे लाल गुंबद और हरे भरे लॉन ने इस इलाके को एक नई शक्ल दीं।

दिल्ली का ये हिस्सा सलीके से षठकोण बनाती सड़कों के साथ बना। इसी के साथ इसके मुहाने पर बसा माधौगंज घोड़े की नाल के आकार वाला कनॉट प्लेस बना जहां गोरे खरीददारी कर सकें।

लुटियन दिल्ली को इस तरह की षठकोणों वाली शक्ल देने की भी खास वजह थी। लुटियन ब्रिटिश श्रेष्ठता के सिद्धांत में हद से ज्यादा यकीन रखते थे। बड़े हुक्मरान, गज़टेड ऑफिसर, विदेशी क्लर्क, भारतीय क्लर्क और चपरासियों के क्रम को ध्यान में रखकर नक्शा प्लान किया गया।

लुटियंस दिल्ली में लोगों के ओहदों के हिसाब से उनकी रिहाइश तय हुई। जितना कम नंबर उतना ऊंचा ओहदा। 7 रेसकोर्स रोड, 10 जनपथ, 9 अकबर रोड। ब्रिटिश हायरार्की की ये परंपरा देश की आजादी के बाद भी बनी रही। सेना के रिटायर अधिकारियों के लिए डिफेंस कॉलोनी, ब्यूरोक्रेट्स के लिए लोदी गार्डन, बड़े पत्रकारों के लिए गुलमोहर पार्क। इसे आप अच्छा भी कह सकते हैं और बुरा भी, लेकिन सत्ता की कुछ मजबूरियां भी होती हैं, कुछ चरित्र भी।

लुटियन ने दिल्ली के इस नए निर्माण में खूब नाम कमाया लेकिन उनका इसमें अपने सहयोगी हरबर्ट बेकर से झगड़ा हुआ। लुटियन भारत वायसराय लॉर्ड लिटन के दामाद थे। जाहिर है कि उनकी पहुंच काफी थी। बेकर ने रायसीना की दो ढलानों पर नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक बनाने की इजाज़त मांगी। लुटियन ने इसकी इजाज़त दे दी। इसके कुछ समय बाद लुटियन को लगा कि इन दो सेक्रेटिएट से इंडिया गेट और वायसराय हाउस का व्यू ब्लॉक हो जाएगा।

उन्होंने इस निर्माण को रुकवाने की बात कही। बेकर ने मना कर दिया। लुटियन ने इसके लिए वायसराय से लेकर जॉर्ज पंचम तक से बात की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। लुटियन ने हार मान ली और कहा कि ये उनका बेकरलू है। इसके बाद लुटियन ने जीवन में कभी बेकर से बात नहीं की।

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चाहे जो हो, किसी के लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे खास और ताकतवर इलाका उसके नाम से जाना जाता हो। भले ही लुटियन भारतीयों से दूरी बनाए रखते हों, उनका इस लुटियन दिल्ली से बेहद खास नाता था। जिस दिल्ली को बनाने में उन्होंने 20 साल लगाए वो बनने के 17 साल बाद अंग्रेजों के हाथ से चली गई। लेकिन उनका नाम दिल्ली से हमेशा के लिए जुड़ गया।

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