शहज़ादे सलमान- ‘BLOOD AND OIL’
सऊदी अरब के शहज़ादे सलमान पर आधारित पुस्तक ‘ब्लड एंड आयल’ में अरब के नवीनीकरण की चर्चा है। पिछले दशकों में सऊदी अरब ने आधुनिक नगर-निर्माण और वैज्ञानिक प्रगति के आधार पर ‘विजन 2030’ का लक्ष्य रखा है। वह अरब को लोकल से ग्लोबल बनाने की चेष्टा कर रहे हैं, जिसमें लेखक ने कुछ शंकाएँ भी दर्ज़ की हैं।
ऐसी चेष्टा आठवीं और नौवीं सदी के अरब में भी होने लगी थी। बग़दाद अरब प्रायद्वीप के सबसे उत्तर-पूर्व क्षेत्र में था। किसी भी कोण से वह अरब का केंद्र नहीं था। लेकिन अमरीका की राजधानी भी तो उत्तर-पूर्व कोने पर है, केंद्र में नहीं। चीन की भी उत्तर-पूर्व कोने पर है। केंद्र में राजधानी रखनी ही क्यों है? राजधानी तो वहाँ हो, जहाँ से बाकी दुनिया का रास्ता खुलता हो। यह अपने-आप में एक ग्लोबल अवधारणा है, जिसका एक पक्ष विस्तारवाद भी है। बग़दाद से आगे ख़ुरासान या सिंध की ओर बढ़ने में सहूलियत रही होगी।
अरबी दुनिया में उसी दौरान एक और महत्वपूर्ण चीज आयी- काग़ज़। काग़ज़ मौजूद तो पहले से थे, लेकिन तकनीक चीन के पास थी। यह क़यास लगते हैं कि काग़ज़ बनाने की तकनीक जो पश्चिमी दुनिया में आयी, वह अरबियों के रास्ते आयी। इससे पहले चर्मपत्र पर लिखी चीजें मिट जाती थी, भारी भी होती थी, और उनको जिल्द-बंद करना कठिन था। काग़ज़ ने एक तरह की क्रांति ला दी, जिससे अरबी दुनिया और इस्लाम के प्रसार को काफ़ी मदद मिली।
बग़दाद में एक पुस्तकालय (वाचनालय) बना- बैत-अल-हिकमा। इसमें गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र इत्यादि पर कार्य शुरू हुए। इसमें बंद कमरे में मौलिक शोध से अधिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग (International collaboration) पर बल था। इस काल-खंड में यूनानी, फ़ारसी, भारतीय , लैटिन, चीनी इत्यादि सामग्रियों के अरबी अनुवादों ने जोर पकड़ा। यह कुछ ऐसी ही पहल थी जो बाद में ब्रिटिशों ने अपना साम्राज्य फैलाने के लिए अपनायी। अनुवाद एक तरह का पुल था, जिससे तकनीक के हस्तांतरण के साथ-साथ उस संस्कृति को समझने में भी सहूलियत थी जिस पर उन्हें भविष्य में शासन करना था।
भारत से हस्तांरित चीजों में दो अनुमान लगते हैं। पहला है अरबी का शब्द – सिफ़र यानी शून्य। इसके बाद भविष्य में ज़ीरो का प्रयोग पश्चिम में भी होने लगा। अरब ने एक पुल का कार्य किया। इसी कड़ी में 820 ईसवी में बग़दाद के विद्वान अल-ख़्वारिज़्मी ने एक किताब लिखी। शीर्षक था- ‘अल किताब अल मुख़्तसर फी हिसाब अल जबर वल मुक़ाबला’
इस किताब में गणित के जोड़-तोड़ के नियम वर्णित थे, जो इससे पहले किसी न किसी रूप में भारत, यूनान, फ़ारस और चीन में मौजूद थे। कुछ गणित इतिहासकार इसके सूत्रों को भारतीय सूत्रों से मिलता-जुलता बताते हैं, और यह कयास लगते हैं कि फ़ारस के रास्ते यह बग़दाद पहुँची होगी। इस लंबे शीर्षक से निकले एक शब्द के बिना तो आज अंग्रेज़ी दुनिया का गणित असंभव है। अल-जबर से बना अलजेब्रा!
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इंग्लैंड के किसी राजा ने दीनार की नकल में सोने का सिक्का बनाया। उसमें अरबी लिपि रही, और अपने नाम की मुहर लगा दी। ग्लोबल दुनिया में यह चीजें होती रहती है। चीन के इतिहास में भी हमने भारतीय और चीनी लिपियों के मिश्रण से बने सिक्के देखे।
अरब इतिहास का अब्बासी काल उनका स्वर्ण-युग कहा जा सकता था, लेकिन अब इस पर सर्वसम्मति बननी कठिन है। शहज़ादे सलमान पर भी ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि वह पश्चिम से कुछ ज्यादा प्रेरित हो रहे हैं। अब्बासियों पर ग़ैर-अरबी होने का तमग़ा लगने लगा। नौवीं सदी में अल-जाहिज़ ने उन्हें ‘अजमिया ख़ुरासानिया’ कहा। यानी ख़ुरासान के अजम (ग़ैर-अरबी)। यह ऐतिहासिक रूप से सही हो सकता है कि उनका गढ़ ख़ुरासान में हुआ करता था; लेकिन उन्हें अजम घोषित कर देना यह कहता था कि अरब पर ग़ैर-अरबियों का शासन आ गया है।
अब्बासी शासन की उल्टी गिनती शुरू होने लगी थी।
ख़ैर, मेरे मन में प्रश्न यह है कि अगर ग्रीको-रोमन की तरह अरैबिक-पर्सियन संस्कृति अरब में विकसित होती, तो कैसा होता? अगर ये दोनों समूह द्वंद्व घटा कर कुछ सकारात्मक करते? मसलन दुनिया में एक भाषा है, जिसने इन दोनों से शब्द लिए और काफ़ी खूबसूरत भी बनी।